केवड़ा की खेती की जानकारी | Kewada farming in hindi

केवड़ा पेनडानेसी कुल की एक झाड़ी है जिसके खुशबूदार ‘नर स्पाडिक्श‘ से तेल प्राप्त होता है, जिसे केवड़ा तेल के नाम से जाना जाता है। नर पुष्प अत्याधिक खुशबूदार होते है तथा इसका उपयोग केवड़ा तेल और केवड़ा इत्र बनाने में किया जाता है। भारत में यह समुद्र के किनारे वाले क्षेत्र में पाया जाता है। यह ज्यादातर नदी किनारे, नहर खेत और तालाबों के आसपास ऊगता है।जो दक्षिण पूर्वी भारत से ताईवान, दक्षिणी जापान और दक्षिणी इंडोनेशिया तक फैला हुआ हैं। भारत में यह मुख्य रूप से आंधप्रदेश, तमिलनाडु, उड़ीसा, गुजरात और अंडमान द्वीप में पाया जाता है।

केवड़ा की खेती कर किसान मालामाल हो रहे हैं । केवड़ा एक बहु उपयोगी पौधा है । इससे कई तरह के उत्पादन बनते हैं । इस कारण इसकी मांग हमेशा बनी रहती है । मांग के हिसाब से उत्पादन नहीं होने के कारण केवड़ा की खेती करने वालों को अच्छी कीमत मिलती है । केवड़ा सामान्यत: नदी, नहर, खेत और तालाब के आसपास उगता है ।  इसके अलावा समुद्री किनारों पर इसकी फसल अच्छी होती है ।  केवड़ा की खेती में ज्यादा मेहनत नहीं करना पड़ता । इसके खेतों में खर-पतवार नहीं होते, इसलिए किसानों को निराई कराने की जरूरत नहीं पड़ती है । अगर बारिश अच्छी हो रही हो तो सिंचाई की जरूरत भी नहीं पड़ती है । अच्छी वर्षा वाले क्षेत्र में ही इसकी खेती ज्यादातर होती है । वैसे भी केवड़ा जल स्रोत के आस-पास अपने आप उग जाता है ।

केवड़ा की खेती की जानकारी | Kewada farming in hindi

केवड़े का वैज्ञानिक परिचय -

श्रेणी (Category) : सगंधीय

समूह (Group) : वनज

वनस्पति का प्रकार : झाड़ी

वैज्ञानिक नाम : पेन्ङानस ओङोरातिस्सिमुस

सामान्य नाम : केवड़ा

कुल : पैनडानेसी

आर्डर : पैनडानालिस

प्रजातियां : पी फेसीकलेरिस

केवड़े का उद्भव स्थल – 

केवड़ा मूल रुप से दक्षिण एशिया का पौधा है |

वितरण : केवड़ा पेनडानेसी कुल की एक झाड़ी है जिसके खुशबूदार ‘नर स्पाडिक्श‘ से तेल प्राप्त होता है, जिसे केवड़ा तेल के नाम से जाना जाता है। नर पुष्प अत्याधिक खुशबूदार होते है तथा इसका उपयोग केवड़ा तेल और केवड़ा इत्र बनाने में किया जाता है। भारत में यह समुद्र के किनारे वाले क्षेत्र में पाया जाता है। यह ज्यादातर नदी किनारे, नहर खेत और तालाबों के आसपास ऊगता है।जो दक्षिण पूर्वी भारत से ताईवान, दक्षिणी जापान और दक्षिणी इंडोनेशिया तक फैला हुआ हैं। भारत में यह मुख्य रूप से आंधप्रदेश, तमिलनाडु, उड़ीसा, गुजरात और अंडमान द्वीप में पाया जाता है।

केवड़े का उपयोग व महत्व  : केवड़े से का उपयोग सौन्दर्य प्रसाधन जैसे नहाने का सुगन्धित साबुन,बालों में लगाने वाला केश तेल,लोशन,खाद्य पदार्थ के रूप में केवड़ा जल मिठाई के लिए,सीरप,शीतल पेय दर्थों में सुगंध लिए केवड़ा जल का प्रयोग किया जाता है | सिरदर्द व गठियावात के रोगियों के लिए केवड़ा तेल किसी वरदान से कम नही है | इसकी पत्तियों कण उपयोग कुष्टरोग,खुजली,चेचक,ल्यूकोडर की रोगों से पीड़ित रोगियों के औधधि के रूप में किया जाता है | साथ ही पत्तियों का उपयोग झोपडियों को ढ़कने, चटाई तैयार करने,टोप, टोकनियाँ और कागज निर्माण करने के लिए ही किया जाता हैं। केवड़े से प्राप्त लंबी जडों के रेशो का उपयोग रस्सी बनाने में और टोकनियाँ बनाने में किया जाता है | कुल मिलाकर केवड़े के पौधे का उपयोग मनुष्य के उपयोग में आने वाली काफी वस्तुओं के निर्माण में किया जाता है |

केवड़े का उपयोगी भाग :

 केवड़े के पौधे के कई भाग उपयोग में लाये जाते हैं किन्तु व्यवसायिक प्रयोग हेतु सिर्फ फूल का उपयोग अधिक मात्रा में होता है | पतंजलि स्वदेशी व आयुर्वेदिक औधधि तैयार करने वाली संस्थाएं इसकी पत्तियों का उपयोग करने लगे हैं |

केवड़े का रासायिनक घटक : 

केवड़े के तेल में फिनाइल एल्कोहल से प्राप्त मिथाइल ईथर (66.88%), डाईपेन्टीन (16.24%), डी- लिनालूल (19.16%), फेनेथियल एसीटेट (4.65%), फ्थालिक एसिड (अम्ल), सिट्राल(1.82%) और स्टेरोपेन्टेन पाया जाता है।

केवड़े के पौधे वानस्पतिक स्वरूप :

केवड़ा एक घना और सख्त प्रवृत्ति का पौधा है। इसकी शाखाएं घनी होती हैं |

पत्तिंया : केवड़े की पत्तियाँ 0.9 -15 मी. लंबी, 4 से.मी. चौडी होती हैं | यह सिरे पर कटीली और ऊभरी धार वाली होती है।

फूल : केवड़े का फूल 25-50 से.मी. लंबे होते हैं | इनकी आकृति बेलनाकार नुकीली होती है | केवड़े में  फूल ग्रीष्मकाल से प्रारम्भ होकर जाड़ा ऋतू तक आते रहते हैं | अंग्रेजी माह के अनुसार मई से अक्टूबर माह में केवड़े में फूल आते है।

परिपक्व ऊँचाई : केवड़ा का पौधा 180-200 सेंटीमीटर तक बढ़ता है |

जलवायु :

 केवड़ा का उष्ण कटिबंधीय जलवायु का पौधा है। इसकी समुचित वृद्धि व विकास सामान्य से 25 से 55 डिग्री सेल्सियस तापमान में होती है | कम तापमान इसके लिए हानिकारक होती है | नम कम ताप वाली जलवायु में केवड़े का पौधा कोहरा सहन नहीं कर सकता है। इसके पौधे को अधिक जल की आवश्यकता होती है।

केवड़े की खेती हेतु भूमि का चयन : 

केवड़ा एक सख्त प्रवृत्ति का पौधा है इसकी खेती कुछ मृदाओं को छोड़कर लगभग सभी तरह की मृदाओं में की जाती है | व्यवसायिक दृष्टि के केवड़े की खेती के लिए बलुअर दोमट व दोमट भूमि उपयुक्त होती है | रेतीली, बंजर और दलदली भूमि में भी केवड़े का पौधा लगाया जा सकता है। केवड़े की खेती से अधिकाधिक उपज लेने के लिए अच्छी पैदावार के लिए अच्छे जल निकास वाली उपजाऊ भूमि सर्वोत्तम होती है।

रोपाई का समय- 

केवड़े के पौध की रोपाई जून से अगस्त माह के बीच की जाती है। सिंचाई की उपयुक्त सुविधा होने पर इसे फरवरी से मार्च में भी लगाया जा सकता है |

भूमि की तैयारी :

 केवड़े की रोपाई के लिए खेत की तैयारी के लिए गहरे फार वाले हल अथवा देशी हल या हैरो से 25-30 सेंटीमीटर गहरी 2 से 3 जुताई करना चाहिए | पाटा चलाकर ढेले फोड़कर मिटटी को भुरभुरा व समतल बना लेना चाहिए | खेत में 2 : 2 : 2  फीट  के आकार के गड्ढ़े खोदे जाते है। केवड़े के पौधे कतारों में पौधे लगाये जाने चाहिए । साथ ही दो कतारों के बीच की दूरी 3X3 फीट होना चाहिए।पौधे लगाने के बाद गड्ढ़ो को मिट्टी और खाद से भर देना चाहिए।

फसल पद्धति विवरण :

 केवड़े के पौधारोपण हेतु लगभग 20-30 से.मी. लंबी और 80-10 से.मी. कलम की आवश्यकता होती है। जिन शाखाओं में पुष्प नहीं लगते और पुराने तने होते है ऐसे ही शाखाओं को कलम के लिए चुना जाना चाहिए | कलमों के बीच की दूरी लगभग 3 से 7 मी. होना चाहिए।

रोपाई (Transplanting) :

केवड़े के कलमों की रोपाई की मानसून के मौसम जून से अगस्त माह में की जाती है।

नर्सरी बिछौना-तैयारी (Bed-Preparation) : 

किसान भाई आवश्यकता के अनुसार नर्सरी हेतु भूमि का चयन करें | नर्सरी हेतु क्यारियाँ छाया में बनाई जाना चाहिए। केवड़े की कलम हेतु लगभग 20-30 से.मी. लंबी और 80-10 से.मी. मोटाई की शाखा की आवश्यकता होती है। किसान भाई ध्यान रखें,कलम लेने के लिए जिन शाखाओं में पुष्प नहीं लगते और पुराने तने होते है उन्हे ही चुनें | कलम लगाने के बाद क्यारियों की नियमित रुप से सिंचाई करें |

रोपाई की विधि : 

कलम लगाने के 40 से 45 दिन पुरानी कलमों को उखाड़ा जाता है। फिर इन कलमों को खेत में वृक्षारोपण के माध्यम से लगाया जाता है। ठंड मौसम में शाम के समय तैयार नये पौधों की रोपाई खेतों में की जानी चाहिए | रोपाई के बाद खेत में हल्का पानी अवश्य लगाना चाहिए | जिससे जड़ें भूमि को अच्छी तरह से पकड़  लें |

खाद  व उर्वरक : 

केवड़े की फसल पर भूमि के तैयारी के समय अथवा रोपाई के समय ही 250-300 प्रति हेक्टेयर कुंतल गोबर की सड़ी खाद मिला देना चहिये | खेत में उर्वरक की मात्रा मृदा परीक्षण के बाद प्राप्त रिपोर्ट के आधार पर निर्धारित करनी चाहिए | किन्ही कारणवश अगर मिटटी की जांच न हो पायी हो तो अच्छी पैदावार के लिए 40:20:40 कि.ग्रा. के अनुपात में NPK नत्रजन, स्फुर और पोटाश की खुराक देना चाहिए।

सिंचाई प्रबंधन :

 केवड़े के पौधे को पानी की अधिक आवश्यकता होती है। रोपाई के बाद केवड़े में नियमित रुप से सिंचाई की आवश्यकता होती है। किन्तु नदियों के किनारे, झरने व अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है।

खरपतवार नियंत्रण प्रबंधन : यह एक सख्त फसल है इसलिए खरपतवार को उगने नहीं देता है। फिर भी फसल लगने के आरंभ में निराई की आवश्यकता होती है। निराई कर आसपास के उगे खरपतवारों को निकालकर नष्ट कर देना चाहिए | साथ ही पौषे में मिटटी चढ़ा देनी चाहिए |

केवड़े की फसल पर लगने वाले रोग व नियंत्रण -

रोग : (लिटिल लीफ )

लक्षण :यह रोग छोटे धब्बों के रुप में शुरु होता है और बाद में पत्तियों की ऊपरी सतह पर तेलीय पारदर्शी धब्बे बन जाते है। धब्बे बाद में सूख जाते है और पत्तियाँ गिर जाती है।

नियंत्रण : इस रोग से बचाव के लिए रोपाई से पहले कलमों को केप्टन 3 ग्राम और कालफोमिन 3 मि.ली को एक लीटर पानी के घोल में आधे घंटे तक डुबोना चाहिए।

केवड़े की तुडाई, फसल कटाई का समय :

 केवड़ा कटाई के पौधे पाँच वर्ष में फूल देना आरंभ कर देते है। फूल की मात्रा वर्षा और उसके जल स्रोत पर निर्भर करती है। फूल मई माह में आरंभ हो जाते है और जनवरी तक ऊगते है और सबसे ज्यादा उत्पादन जुलाई से अक्टूबर माह में होता है। तुड़ाई हाथों से की जानी चाहिए ताकि फूलों को नुकसान ना पहुँचें।

केवड़े का आसवन (Distillation) : 

यह प्रक्रिया आसवन यूनिट द्वारा की जाती है। केवड़ा तेल, केवड़ा अतर, केवड़ा जल आसवन द्वारा ही प्राप्त होता है। इन तीनों उत्पाद के उत्पादन के लिए लगभग 1 मिली (10 लाख) स्पाडिक्स की आवश्यकता होती है। 1 कि.ग्रा. अतर को बनाने के लिए लगभग 1000 से 1000 फूलों का आसवन करते है। 18 ली. केवड़ा जल के लिए लगभग 1000 फूलों का आसवन करते है।

निष्कर्षण (Extraction) : 

यह प्रक्रिया साल्वेंट तकनीक द्वारा की जाती है। उसके बाद एबसल्यूट प्राप्त होता है। एबसल्यूट को कम दबाव के अंतर्गत आसवित करके तेल प्राप्त किया जाता है।

श्रेणीकरण-छटाई (Grading) :

 फूलों की ताजगी के अनुसार छटाई की जाती है। खराब फूलों को अलग कर देना चाहिए।

भडांरण (Storage) : 

फूलों को सुबह जल्दी तोड़ा जाता है। तुड़ाई के तुरंत बाद फूलों को आसवन के लिए भेजा जाता है।

परिवहन : 

सामान्यत: किसान अपने उत्पाद को बैलगाड़ी या टैक्टर से बाजार तक पहुँचता हैं। बाजार से उत्पाद को ट्रक या लारियो के द्वारा भण्डारण के लिए पहुँचाया जाता हैं। परिवहन के दौरान चढ़ाते एवं उतारते समय पैकिंग अच्छी होने से फसल खराब नहीं होती हैं।

केवड़े का  उपयोग -

केवड़ा से सौंदर्य प्रसाधन बनाए जाते हैं. इससे सुगंधित साबुन, केश तेल, लोशन, खाद्य पदार्थ और सीरप आदी में उपयोग होता है. सुंगध के लिए पेय पदार्थों में भी इसे डाला जाता है. औषधीय गुणों से भरपूर केवड़ा गठिया के रोग में बड़ा असरदार होता है. इसकी पत्तियों से भी कई प्रकार की दवाई बनाई जाती है. व्यावसायिक इस्तेमाल कर भी लोग इससे धन कमाते हैं. केवड़ा के रेशों से चटाई और टोकरी भी बनती है .

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केवड़ा पेनडानेसी कुल की एक झाड़ी है जिसके खुशबूदार ‘नर स्पाडिक्श‘ से तेल प्राप्त होता है, जिसे केवड़ा तेल के नाम से जाना जाता है। नर पुष्प अत्याधिक खुशबूदार होते है तथा इसका उपयोग केवड़ा तेल और केवड़ा इत्र बनाने में किया जाता है। भारत में यह समुद्र के किनारे वाले क्षेत्र में पाया जाता है। यह ज्यादातर नदी किनारे, नहर खेत और तालाबों के आसपास ऊगता है।जो दक्षिण पूर्वी भारत से ताईवान, दक्षिणी जापान और दक्षिणी इंडोनेशिया तक फैला हुआ हैं। भारत में यह मुख्य रूप से आंधप्रदेश, तमिलनाडु, उड़ीसा, गुजरात और अंडमान द्वीप में पाया जाता है।
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