करेले की उन्नत खेती : करेले की वैज्ञानिक विधि से खेती कैसे करें पूरी जानकारी हिंदी में पढ़ें((Advanced farming of bitter gourd: How to cultivate bitter gourd by scientific method Read full information in Hindi)

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करेले की उन्नत खेती : करेले की वैज्ञानिक विधि से खेती कैसे करें पूरी जानकारी हिंदी में पढ़ें((Advanced farming of bitter gourd: How to cultivate bitter gourd by scientific method Read full information in Hindi)

करेले की खेती)
वानस्पतिक नाम : Memordica charantia L.
कुल : Cucurbitaceae

गुणसूत्रों की संख्या :  2n = 22

करेले का उद्भव स्थान : भारत में करेला का जन्मस्थान माना जाता है | आज भी हमारे देश में इसकी जंगली प्रजातियाँ पाई जाती हैं |
सदियो उगाई जाने वाली सब्जी है | ग्रीष्मकालीन सब्जियों में करेला अपनी औषधीय गुणों व पौष्टिकता के लिए विशेष रूप से जाना जाता है । कब्ज रोग,डायबिटीज (मधुमेह) के रोगियों के लिये करेला की सब्जी का सेवन किसी वरदान से कम नही है । उदर शूल दूर करती है व पेट के कीड़ों को मारती है | हेल्थ कांसेस मोटापा से छुटकारा चाहने वाले लोग इसके ताजे हरे फलों का जूस पीते हैं वहीँ इसको सब्जी,व फ्राई के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसके छोटे-छोटे टुकड़े करके धूप में सुखाकर रख लिया जाता हैं, जिनका बाद में आउट ऑफ़ सीजन प्रयोग में लाया जाता है |

करेले में खाद्य मूल्य पोषण :


करेला की खेती के लिये जलवायु व तापमान :

करेले के पौधे के समुचित विकास बढवार के लिए एवं आर्द्र जलवायु की जरूरत पड़ती है । करेला के पौधों की खासियत है कि यह अन्य कद्दू वर्गीय फसलों की अपेक्षा अधिक कम तापमान वाली जलवायु यानी शीत सहन  कर सकता है, पर अधिक वर्षा से फसल की उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है |

बुवाई का समय :
मैदानी भागों में - 15 फरवरी से 15 मार्च तक (जायद फसल के रूप में)
पहाड़ी क्षेत्र में - अप्रैल से जून तक

करेले की खेती के लिए भूमि का चयन :

करेले की खेती के लिए उचित जन निकास वाली जीवांश युक्त दोमट व बलुई भूमि उपयुक्त होती है | इसके लिए भूमि का पीएच 5.5 से 7.0 होना उपयुक्त है |

करेले की खेती के लिए बीज की मात्रा :
अच्छी अंकुरण क्षमता वाले 6 से 8 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर

करेले की खेती के लिए बीज उपचारित करना :
करेले के बीजों को किसी भी फफूंदनाशक थायरम अथवा केप्टान से बीजों को बुवाई के पहले उपचारित करना चाहिए |

करेले के बीजों का अंतरण -
ग्रीष्मकालीन फसलों के लिए - 200*50  सेंटीमीटर
वर्षा ऋतु की फसल के लिए - 250*60 सेंटीमीटर

खेत की तैयारी व बुवाई :

करेले की खेती के लिए खेत की तैयारी करते समय जुताई के पहले कार्बनिक खाद के रूप में 250-300 कुंतल प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर की खाद व 200 लीटर बायोगैस स्लरी अथवा 2000 लीटर संजीवक खाद खेत में दें | दवा डालने के  4-5 दिन बाद  मिट्टी पलट हल तथा कल्टीवेटर अथवा हैरो से जुताई करें । इसके उपरान्त एक सप्ताह तक खेत को खुला छोड़ देते हैं । तीन से चार बार देशी हल से जुताई कर पाटा चलाकर लगाकर खेत को समतल करें, इससे ढेले फूट जाते हैं व मिटटी भुरभुरी हो जाती है | अब किसान भाई 3-3 फीट के अन्तराल पर 30  सेंटीमीटर गहरा तथा 60 सेंटीमीटर  फीट चौड़ा गड्ढा बनाकर प्रत्येक गड्ढे में 500 ग्राम वर्मी कम्पोस्ट तथा 50 ग्राम कॉपर सल्फेट पाउडर एवं 200 ग्राम राख मिलाकर गड्ढे को मिट्टी से ढ़क देते हैं तथा इसके बाद खेत की सिंचाई कर लें । करीब 7 से 8 दिन बाद गड्ढों के बीचों-बीच 3 से 4 बीज 2 से 3 सेंटीमीटर गहराई में बोते हैं | बुवाई का काम ठंडे मौसम अथवा शाम के समय करना चाहिए |

जिन क्षेत्रों में पाले का खतरा हो वहां पर फरवरी में पालीथीन की 15 सेंटीमीटर लम्बी व 10 सेंटीमीटर चौड़ी थैलियों में 3 से 4 बीज 2 से 3 सेंटीमीटर की गहराई में बोना चाहिए | 15 से 20 दिन बाद बीजों का अंकुरण होने के बाद तैयार पौधों को सावधानी पूर्वक पिंडी सहित पोलीथीन में चीरा लगाकर रोपाई कर देनी चाहिए |

करेले के खेती के लिए उन्नत किस्में :

कोयम्बटूर लौग : 
यह दक्षिण भारत की किस्म है, इस किस्म के पौधे अधिक फैलाव लिए होते है । इसमें फल अधिक संख्या में लगते हैं तथा फल का औसत वजन 70 ग्राम होता है । इसकी उपज 40 क्विंटल प्रति एकड़ तक आती है

कल्याणपुर बारहमासी :
 इस किस्म का विकास चंद्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय द्वारा किया गया है | इस किस्म के फल आकर्षक एंव गहरे हरे रंग के होते हैं । इसे गर्मी एवं वर्षा दोनों ऋतुओं में उगाया जा सकता है, अर्थात् ये किस्म वर्ष भर उत्पादन दे सकती है । इसकी उपज 60-65 विवंटल प्रति एकड़ तक आती है ।

हिसार सेलेक्शन :
 इस किस्म को पंजाब, हरियाणा में काफी लोकप्रियता हासिल है | वहां की जलवायु में इसकी उपज 40 क्विंटल प्रति एकड़ तक प्राप्त होती है |

अर्का हरित :
 इसमें फलों के अन्दर बीज बहुत कम होते हैं । यह किस्म गर्मी एवं वर्षा दोनों ऋतुओं में अच्छा उत्पादन देती है । पतंजलि विषमुक्त कृषि विभाग ने अपने शोध प्रयोगों में पाया कि इसकी प्रत्येक बेल से 34 से 42 फल प्राप्त होते हैं ।

पूसा विशेषः
 यह किस्म बीज बुवाई के 55 दिन बाद फल देना प्रारम्भ कर देती है । इस किस्म के फल मध्यम, लम्बे, मोटे व हरे रंग के होते हैं । इसका गूदा मोटा होता है । फल का औसत भार 100 ग्राम तक होता है । पतंजलि विषमुक्त कृषि विभाग इस किस्म को फरवरी से जून माह के बीच उठाने की सलाह देता है।

खाद व उर्वरक :
बुवाई से पहले खेत की तैयारी के समय गोबर की सड़ी खाद 250-300 कुंतल प्रति हेक्टेयर की दर से मिला देना चाहिए | उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के उपरान्त ही करना उत्तम होता है किन्ही कारणों से यदि जांच नही हो पाती ऐसे में
नाइट्रोजन - 30-40 किलोग्राम
फास्फोरस - 25-30 किलोग्राम
पोटाश - 20-30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए | नाइट्रोजन की तिहाई मात्रा जुताई के समय व फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा को जुताई के समय खेत में मिला देना चाहिए | नाइट्रोजन की शेष मात्रा को दो भाग बनाकर एक भाग को बुवाई के माह भर बाद टॉप ड्रेसिंग के रूप में तथा शेष बचे दूसरे भाग को फलन आरम्भ होने के समय देना चाहिए |
करेले की खेती के किये कुदरती जैविक खाद कैसे बनाये ?
बीज बुवाई के 3 सप्ताह पश्चात जब करेला के पौधे में 3-4 पत्ते निकलना प्रारम्भ हो जायें, उस समय 2000 लीटर बायोगैस स्लरी अथवा 2000 लीटर संजीवक खाद अथवा 40 किलो गोबर से निर्मित जीवामृत खाद प्रति एकड़ की दर से फसल को दें । दूसरी बार जब पौधों पर फूल निकलने प्रारम्भ हो जायें, उस समय पुनः उपरोक्त कुदरती खाद फसल को देनी चाहिए । इसी प्रकार जब करेला फसल की प्रथम तुड़ाई प्रारम्भ हो, उस समय 200 किलोग्राम वर्मी कम्पोस्ट में 50 किलोग्राम राख मिलाकर फसल पर छिडकाव कर देना चाहिए, ताकि फसल की उपज अधिक से अधिक मिल सके।


करेले के खेत की सिंचाई ;
करेले की फसल पर सिचाई की संख्या भूमि की किस्म,मौसम पर निर्भर करती है | करेला की फसल में सिंचाई काफी महत्वपूर्ण प्रभाव डालती है, अतः समय-समय पर सिंचाई अवश्य करते रहना चाहिएण | बारिश में बोई गयी फसल में सिचाई की विशेष आवश्यकता नही होती किनती गर्मी के मौसम में बोई गयी फसल में शुरुआत में 10 तथा तापमान बढने पर 6 से 7 दिन के अंतर पर सिंचाई करना उपयुक्त होता है |

करेले की फसल पर निराई-गुड़ाई करना :
ग्रीष्म एवं वर्षा ऋतु में उगाई जाती है, जिस वजह से खरपतवार अधिक संख्या में उग जाते हैं । अत: समय-समय पर खेतों से खरपतवार निकालना बहुत जरुरी है । इसी प्रकार खेत का नियमित अन्तराल पर निराई-गुड़ाई करते रहना चाहिए, ताकि फसल पर फल-फूल अधिक से अधिक संख्या में आये | जब बेल पूर्ण रूप से बड़ी हो जाएँ निराई गुड़ाई बंद कर देनी चाहिए | सामान्यत : वर्षा काल में लगभग दो सिंचाइयों की आवश्यकता होती है |


 करेला फसल पर कीट नियंत्रण (फसल सुरक्षा) -

करेला की फसल में कीटों का प्रकोप अपेक्षाकृत कम होता है, किन्तु अधिक स्वस्थ फसल हेतु नियमित अन्तराल पर कुदरती कीट रक्षक का छिड़काव करते रहना चाहिए, ताकि फसल उपज ज्यादा एंव उत्तम गुणवत्ता के साथ प्राप्त हो सके।

माहू (aphid) :
माहू के छोटे-छोटे कीट करेले की पत्तियों का रस चूसते हैं | जिससे पौधा कमजोर हो जाता है | फलन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है |

बचाव व रोकथाम :
कीट से अधिक प्रभावित पौधों को नष्ट कर दें |
फल आने की पहली अवस्था में इस कीट से रोकथाम के लिए साइपरमेथ्रिन 0.15 का 150 मिलीलीटर दवा को 100 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिए |

कट वर्म :
इस कीट की सूंडी करेले की फसल को काफी नुकसान पहुचाती हैं | इसकी सूडी मिटटी के ढेलों अथवा छिद्रों में छिपे रहते हैं रात को निकल कर सूंडी पौधे के तने को भूमि के सतह से काट देती है | जिससे पूरा पौधा सूख जाता है |

बचाव व रोकथाम :
इस कीट से बचाव के लिए एल्ड्रिन 5 प्रतिशत धूल अथवा हेप्टाक्लोर धूल की 20 से 25 किलोग्राम मात्रा को बुवाई के पहले ही मिटटी में मिला देना चाहिए |

रैड बीटल : 
यह एक हानिकारक कीट है, जोकि करेला के पौधे पर प्रारम्भिक अवस्था पर आक्रमण करता है | यह कीट पत्तियों का भक्षण कर पौधे की बढ़वार को रोक देता है | इसकी सूंडी काफी खतरनाक होती है, जोकि करेला पौधे की जड़ों को काटकर फसल को नष्ट कर देती है |

बचाव व रोकथाम :
रैड बीटल से करेला की फसल सुरक्षा हेतु पतंजलि निम्बादी कीट रक्षक का प्रयोग अत्यन्त प्रभावकारी है | 5 लीटर कीटरक्षक को 40 लीटर पानी में मिलाकर, सप्ताह में दो बार छिड़काव करने से रैड बीटल से फसल को होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है |

करेले की फसल में लगने वाले रोग व नियंत्रण :

पाउडरी मिल्ड्यू रोग : 
यह रोग करेला पर एरीसाइफी सिकोरेसिएटम की वजह से होता है | इस कवक की वजह से करेला की बेल एंव पत्तियों पर सफ़ेद गोलाकार जाल फैल जाते हैं, जो बाद में कत्थई रंग के हो जाते हैं | इस रोग में पत्तियां पीली होकर सूख जाती हैं।

बचाव व रोकथाम :
 इस रोग से करेला की फसल को सुरक्षित रखने के लिए 5 लीटर खट्टी छाछ में 2 लीटर गौमूत्र तथा 40 लीटर पानी मिलाकर, इस गोल का छिड़काव करते रहना चाहिए | प्रति सप्ताह एक छिड़काव के हिसाब से लगातार तीन सप्ताह तक छिड़काव करने से करेला की फसल पूरी तरह सुरक्षित रहती है |

एंथ्रेक्वनोज रोग : 
करेला फसल में यह रोग सबसे ज्यादा पाया जाता है | इस रोग से ग्रसित पौधे की पत्तियों पर काले धब्बे बन जाते हैं, जिससे पौधा प्रकाश संश्लेषण क्रिया में असमर्थ हो जाता है | फलस्वरुप पौधे का विकास पूरी पूरी तरह से नहीं हो पाता |

बचाव व रोकथाम :
 रोग की रोकथाम हेतु एक एकड़ फसल के लिए 10 लीटर गौमूत्र में 4 किलोग्राम आडू पत्ते एवं 4 किलोग्राम नीम के पत्ते व 2 किलोग्राम लहसुन को उबाल कर ठण्डा कर लें, 40 लीटर पानी में इसे मिलाकर छिड़काव करने से यह रोग पूरी तरह फसल से चला जाता है ।

करेले की फसल की तुड़ाई
करेला फलों की तुड़ाई कोमल अवस्था में  करनी चाहिए, वैसे सामान्यतः बीज बुवाई के 90 दिन पश्चात फल तोड़ने लायक हो जाते हैं । फल तुड़ाई का कार्य सप्ताह में 2 या 3 बार करना चाहिए ।


करेले की उपज :
ग्रीष्म कालीन फसल से उपज - 80-100 कुंतल प्रति हेक्टेयर
वर्षा ऋतु की फसल से उपज - 100-125 कुंतल प्रति हेक्टेयर


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